Monday, August 23, 2010

आंसू

छोड़ जाओगे तुम
एक दिन
और मैं देहरी पर
खड़ी-खड़ी
पत्थर हो जाउंगी

मेरी आँख का कतरा
अटक जायेगा
मेरी गाल पर
और
जब कभी
तुम लौटोगे
तो उठा न पाओगे
उसे
अपनी ऊँगली पर
न होंठ से ही

तुम्हें न होगा
एहसास
उसके गीलेपन का
वह भी
हो जायेगा
पत्थर मेरे साथ-साथ

उम्र

मुझे
कभी-कभी
उम्र भी हैरान
कर जाती है
जानें कब हल्का-सा
छूती है
और सारा वजूद ही
रंग बदलने लगता है

पर रूह नहीं बदलती
वह ढूँढती रहती है
इक ठंडक-सी
प्रेम का राग भी
वह तो जानती तक नहीं
की
उम्र क्या होती है
कब जिस्म छू कर चली जाएगी

ठीक वैसे
जैसे तू और मैं
धूनी रमाये बैठे हैं

मेरी कविता और मैं...


जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ रही है, ऐसे में मेरा मन चाहता है की मैं अपनी कविता के और करीब चली जाऊं। मुझे लगता है की जितना मैंने लिखा है, वह तो काफी नहीं है। बहुत सी बातें हैं, बहुत से अनुभव हैं, जो मुझे लिखने हैं। पर वे कब मेरे कागजों पर उतरेंगे, नहीं जानती। अक्सर आधी रात को सोते सोते मेरे भीतर कोई ख्वाब या कोई एहसास कविता के रूप में दिमाग में दौड़ने लगता है, और मैं चुपचाप मन के अन्दर कविता बनाने लगती हूँ। यही मेरी रचना प्रक्रिया के सबसे खूबसूरत पल होते हैं

पहली कविता लिखने का कोई फैसला मैंने नहीं लिया था। मेरे भीतर न जाने कैसे शब्दों की एक नदी बहने लगी थी, और मेरी मासूम उम्र उन शब्दों को चुन चुन झोली में भरती रही। कवि होने का यह निर्णय भी न था। पहली तुकबंदी होली के दिन हुई, जब हमारे मोहल्ले में लड़के ढोल पीटते होली का त्यौहार मानते गुज़र रहे थे। मैं तब छठी कक्षा में पढ़ती थी। उन दिनों हम फाजिल्का में रहते थे। पिता पुलिस विभाग में थे। सो, इधर, उधर तबादले के सिलसिले में यहाँ तहां घूम लेते थे। जहाँ मैं पढ़ती थी, वह सरकारी पाठशाला थी, वहां एक पुस्तकालय भी था। मैं अक्सर आधी छुट्टी को वहां जाकर किताबों के नाम देखा करती थी। उन्हें पढ़ नहीं पाती, किताबें बड़ी थी, मैं छोटी सी थी। हाँ, घर में माँ ने हमारे पढने के लिए चंदामामा और एक बाल पत्रिका लगवा रखी थी। खुद वे साहित्य की किताबें लाइब्ररी में पुस्तकें लेने और वापिस करने भी मैं ही जाती, माँ मेरे पुस्तक चयन करने के मामले को लेकर भी बहुत खुश होती थी। मैं अक्सर किताब के पन्ने उलटती-पलटती ही तय कर लेती थी की फलां किताब माँ को पसंद आएगी। मेरा भी मन होता था की मैं उन किताबों को पढूं। पर ऐसा संभव ही कहाँ था? हाँ, वह सारा माहौल मुझे कुछ न कुछ लिखने के लिए प्रेरित जरुर करता, तभी तो मैं छोटी छोटी कवितायेँ लिख पाई। लेकिन आज मुझे एक बात जरुर हैरान करती है की आठवीं तक मैं यही समझ न पाई थी की
जो मेरे कागजों पर अनायास ही उतर रहा है, वह मेरा अपना है, खुद का रचा साहित्य। यह एहसास तो बहुत बाद में मुझे हुआ। मैं सहेलियों के साथ कभी खेलने नहीं जाती थी। खेलकूद मुझे अच्छा न लगता था...मुझे किताबों से बहुत लगाव था या अकेलेपन से... माँ मेरी इस बात से कभी तो बहुत खुश हो जाती और कभी उदास भी। मेरी स्कूल के समय में एक ही सहेली थी। कुछ दिनों के बाद उसके पिता का तबादला हो गया और वह भी चली गई। मेरा स्कूल में मन नहीं लगता था। मैंने माँ से मिन्नत की और आठवीं तक पहुँचते स्कूल बदल लिया। मैं अब एस.डी. हाई स्कूल फाजिल्का में आ गई थी। इस स्कूल में आकर मुझे मेरी पसंद की सहेली मिल गई, उसका नाम उषा था। मैंने कहानियां बनानी शुरू कर डी। वे सारी कहानियां मैं उषा को जुबानी सुनाती। उषा बहुत हैरान होती की मैंने इन्हें कब कहाँ पढ़ा तो मैंने एक दिन उसे बताया कि ये सब कहानियां मेरे मन में न जाने कहाँ से उतर आती हैं। फिर उसी ने मुझे कहा कि मैं उन कहानियों और कवितायों को कागजों पर उतरा करूँ। बस, इसे ही मैंने पल्ले बाँध लिया। मुझे सचमुच विस्मय हुआ कि मैं भी दूसरों कि तरह खुद लिख सकती हूँ, पर मैं माँ से बहुत डरती थी, उनको बताने का सहस मैंने कभी नहीं किया था। उन्हें तो बहुत बाद जाकर पता चला कि मैं पढाई कि किताबों के बीच कोरे पन्ने रख कर कवितायें या कहानियां लिखती रही और आठवीं पास करने से पहले मैंने एक उपन्यास भी लिख दिया। जो भी लिखा, पर कविता लिखने से मुझे बहुत सुख मिला। मुझे हमेशा लगा कि जीवन में जो कुछ भी घटता है या आसपास जो मैं महसूस कर सकती हूँ, उसे सहेजने में कविता बहुत काम कि चीज़ है। कविता में रस है, कविता में जीवन है, कविता में विषाद और वेदना है। कविता में चाहें तो सारी सृष्टि समां सकती है। ....और जब आप अकेले छत पर बारिश कि बूंदों को भी भीतर तक समेटना चाहें तो भी कविता को पुकार सकते हैं। मेरी कविता ही मेरी दोस्त बन कर आज तक मेरी उंगली थामे साथ-साथ चल रही है। फिर अन्य किसी दोस्त कि जरुरत ही कहाँ रह जाती है? आप जिस रूप में चाहते हैं, कविता उसी लिबास में आपके समक्ष आ कड़ी होती है। आपके साथ रोटी भी है, खुश भी होती है। कविता सचमुच मेरे लिए प्राण है।

क्रमश....