Sunday, May 17, 2015

पानी से पहचान



पानी से मेरी पहचान
तब हुई थी
जब खचपच खचपच
मैने बहाई थी
काग़ज़ की किश्तिया

सवार थी उसमें
मेरी नन्ही गुड़िया
और चिरकु का गुड्डा
दोनो ही खुश थे
दान ना दहेज
बस पाँच बाराती आए
और बस...
हो गई शादी

कपड़ा नई लत्ता नई
गहना नई
बस विदा हो गई डोली

अब तो पिचकू के बापू
पिचकू व्याहनी औूखी
सारा बाज़ार ख़रीदो
पानी में नहीं
सड़क पे दौड़ेगी किश्ती
दान दहेज होगा
कपड़ा लत्ता
गहना गाड़ी होगी
तो उठेगी
डोली
पूरा शहर होगा बाराती
खाएँगे भी
बरसेंगे भी...
पानी की पहचान
तब आँखों से होगी
बरसेगा पानी
छम...छम...छम..
ज़िंदगी भर का दर्द दे जाएगी
पिचकू 

- गीता डोगरा

हे ईश्वर


हे ईश्वर
कितना झुकायोगे तुम
इस पुरुष प्रधान
समाज के आगे
मेरी रगों में बहता खून
फड़कने लगता है
जब जब वह समाज
छूने लगता है मेरी देह को
विकृत मन से
और अंधमुंदी आँखें
खुल जाती हैं
उस लौह पुरुष के
बदन की गंध से
तब मैं चीखती हूँ
पर कहाँ रह जाता है
कोई अर्थ
मेरी पीड़ा का, मेरे मन का
जबकि मैं औरत की तरह नहीं
एक बेजान चीज़ की तरह
रौदी जाती हूँ!! हे पुरुष
कहाँ रह जाता है तुम्हारा भी कोई अस्तित्व
जब तुम किसी
हिंसक की तरह झपटते हो मुझ पर....

- गीता डोगरा

वह लड़की


वह लड़की
सीख गई है
अपने ज़ख़्मों को छुपाना

उसने सीख लिया है
दर्द में भी
मुस्कुराना

शहर रोता है जब जब
वह भी कर लेती है
आँख नम....
फिर कुछ चेहरों के बीच
जा मुस्कुराना

उसने चन्द घंटों में ही
शहर के रीति रिवाज
औड़ने का ढंग
फिर शहर - दर शहर
भटकना
फिर वह देती है दस्तक
स्वपन गढ़ती है

पर कितना मुश्किल
होता होगा
सपनों का देहरी पर से
होकर लौट जाना
नहीं तो बस नही
सीख पाई
दरवाज़े पर से
उन सपनों को रोके रखना
इसलिए..
वह हर रोज़
ढूँढती है सबब
बेरोक टोक कहीं जाने के रास्ते
पर नहीं सीख पाई
अपना जीना अपना मरना
वह लड़की....


- गीता डोगरा