Sunday, May 17, 2015

हे ईश्वर


हे ईश्वर
कितना झुकायोगे तुम
इस पुरुष प्रधान
समाज के आगे
मेरी रगों में बहता खून
फड़कने लगता है
जब जब वह समाज
छूने लगता है मेरी देह को
विकृत मन से
और अंधमुंदी आँखें
खुल जाती हैं
उस लौह पुरुष के
बदन की गंध से
तब मैं चीखती हूँ
पर कहाँ रह जाता है
कोई अर्थ
मेरी पीड़ा का, मेरे मन का
जबकि मैं औरत की तरह नहीं
एक बेजान चीज़ की तरह
रौदी जाती हूँ!! हे पुरुष
कहाँ रह जाता है तुम्हारा भी कोई अस्तित्व
जब तुम किसी
हिंसक की तरह झपटते हो मुझ पर....

- गीता डोगरा

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