Saturday, December 25, 2010

झील में नहाने दो 

चलो एकाध गीत गाने दो
मौसम बदलेगा जब देखा जाएगा
तब तक तो
सपनों की झील में नहाने दो

लिखने दो ख़त प्रेमी को
जो रिझाता है
ऊँगली पकड़ ले जाता है
चाँद तारों से दूर
ख्वाब टूटेंगे जब
तब देखा जाएगा
तब तक तो मन में फूल खिलाने दो

मुस्कराने दो मुझे
भीग जाने दो

मैं मैं रहूँ या नदी हो जाऊं
लहर कभी रुकेगी तो देखा जाएगा
तब तो बह जाने दो निर्विघ्न
झील में नहाने दो
लड़कियां 

बाबा को पसंद नहीं
लड़कियों का
आँगन से बाहर झांकना

उन्हें कतई पसंद नहीं
कि लड़कियां झुण्ड बना
गाँव कि किसी गली में
खड़ी हो
 माओं पर हो रहे अत्याचारों की
कथा बुनें
और मर्दों कि नामर्दगी पर
अपनी राय रखें

बाबा कि राय में
लड़कियों का जन्म ही इसीलिए
होता है
कि वे
औलादें जनती रहें
और बीनती रहें जिस्म कि चोटें
धीरज की धरती कि माफिक
सहती रहें - गलत भी ठीक तरह

उन्हें कतई कतई पसंद नहीं
लड़कियों का खिलखिला कर हँसना
और अगर
उन्हें यह महसूस हो कि
लड़कियां बढ़ रही है
अपनी औकात से आगे
तो वे रचना शुरू कर देते हैं
लड़कियों को कुचलने कि साजिश....
रूह की बात

जिस्म जिस्म नहीं होता
जब तक हो न
उसमें रूह शामिल

इसीलिए करती रहती हूँ
बगावत
तुम्हारे साथ हर रात में

मैं नहीं दे पाती
तुम्हारा साथ
छू नहीं पाती तुम्हारा चेहरा

कैक्टस सी लगने लगती है
तुम्हारी छुअन
कभी हलकी, कभी तीखी

पहले
मैं तुमसे हिल मिल गई थी
तब...तुम रच बस न सके
तुम्हारी नींदों में भी
उसका नाम
तब बर्फ की तरह हो जाती थी
मैं अचानक....

फिर
मैं तुम्हारे अतीत को चाहने लगी
उसे लेकर
तुमसे बतियाने लगी

तुम मुस्कराते
मीलों मील चलते
मुझसे बौराते न थे
उसको याद करते
कभी
उस पर झल्लाते
गुस्साए से...मगर
निभाते रहे....उससे
बेनाम रिश्ता
और मैं अनचाहे तुमसे
पर
मैं तुमसे दूर
बहुत दूर निकल गई

अभी भी मेरे भीतर
पलता है वह अपमान
कि
मैं क्यों बनी रही
सालों साल
तुम्हारे ड्राइंग रूम का शो पीस
और क्यों?
बरसों बीत गए
इसी तरह एक छत के नीचे
नहीं छू पाए तुम मेरी रूह

बस...खेलते रहे जिस्मों से
हम
एक दूसरे की जरुरत हो गए
एक साथ रहने की
आदत हो गए!


पर ...
खेल तो खेल होता है
वक़्त आने पर खत्म हो जाता है
जिस तरह
धरती पर आ गिरती है
आकाश को छूने के प्रयास में
बिना छूए गेंद
और ढूँढ लेती है
कोई एक टुकड़ा ज़मीन

पर मैं
गेंद नहीं बनी
तुम्हारे जिस्म से मुक्त हो
मैंने ढूँढ लिया
अपने लिए एक अदद आसमान
छू लिया उसने भी
मुझे...अचानक
और मैंने उसकी नब्ज़ पर
लिख दिया
अपना नाम
माँ की मौत की दुआ

हाँ माँ,
मैंने मांगी थी
तुम्हारी मौत की दुआ
तुम जब
उतार दी गई थी जमी पर
और अटक रही
तुम्हारी साँसे
जब जब लौट आती थी
तब तुम्हारे
बर्फ से हाथों को सहलाती
मैं महसूस कर रही थी
की तुम मेरी हथेली पर
लिख कर पूछ रही हो 
की...निम्मी!
मुझे क्यों नहीं आती मौत
तब उस शाम
मैं गई थी
दुखभंजनी
और उन सीड़ियों पर
बैठ उस सच्चे पातशाह
से
मैंने तुम्हारी मौत की
दुआ की थी
तब
मुझे लगा था
की
मैं अपनी ही अर्थी
उठा रही हूँ
अपने कंधे पर
और तुम ठीक
मेरे पीछे पीछे
चल रही हो
मेरा ही मातम मानती
मेरे दाह संस्कार पर
वह शख्स
  
रंगों की पहचान सा 
वो शख्स 
उड़ाता रहा मेरी नींद
रात भर
और जलाता रहा कंदील
मोहब्बत की

कांपती जब जब उसकी लौ
ढकती रही मैं
अपनी हथेलियों से
जलती रही उस लौ से
मेरी हथेलियाँ
और.....
उसका वजूद भी

पर फिर भी 
वह
अपने जिस्म की दीवार पर 
लिखता रहा मेरा नाम
सालों साल


सलीका

खुद को जिन्दा रखने का
यह सलीका अच्छा है
कभी नज़म लिखो
कभी गुनगुनाओ

दे दो उम्र के पड़ाव को
फूल पत्तियां शबनम
कभी छेड़ो नदी के राग को
तो कभी नहाओ

बारिश की बूँद को
रख ओंठों पर
समंदर में बदल दो
छेड़ दो प्यार का राग
उसे आँख से बहाओ

खुद को जिन्दा रखने का
यह सलीका अच्छा है
कभी नज़म लिखो
कभी गुनगुनाओ.

Monday, August 23, 2010

आंसू

छोड़ जाओगे तुम
एक दिन
और मैं देहरी पर
खड़ी-खड़ी
पत्थर हो जाउंगी

मेरी आँख का कतरा
अटक जायेगा
मेरी गाल पर
और
जब कभी
तुम लौटोगे
तो उठा न पाओगे
उसे
अपनी ऊँगली पर
न होंठ से ही

तुम्हें न होगा
एहसास
उसके गीलेपन का
वह भी
हो जायेगा
पत्थर मेरे साथ-साथ

उम्र

मुझे
कभी-कभी
उम्र भी हैरान
कर जाती है
जानें कब हल्का-सा
छूती है
और सारा वजूद ही
रंग बदलने लगता है

पर रूह नहीं बदलती
वह ढूँढती रहती है
इक ठंडक-सी
प्रेम का राग भी
वह तो जानती तक नहीं
की
उम्र क्या होती है
कब जिस्म छू कर चली जाएगी

ठीक वैसे
जैसे तू और मैं
धूनी रमाये बैठे हैं

मेरी कविता और मैं...


जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ रही है, ऐसे में मेरा मन चाहता है की मैं अपनी कविता के और करीब चली जाऊं। मुझे लगता है की जितना मैंने लिखा है, वह तो काफी नहीं है। बहुत सी बातें हैं, बहुत से अनुभव हैं, जो मुझे लिखने हैं। पर वे कब मेरे कागजों पर उतरेंगे, नहीं जानती। अक्सर आधी रात को सोते सोते मेरे भीतर कोई ख्वाब या कोई एहसास कविता के रूप में दिमाग में दौड़ने लगता है, और मैं चुपचाप मन के अन्दर कविता बनाने लगती हूँ। यही मेरी रचना प्रक्रिया के सबसे खूबसूरत पल होते हैं

पहली कविता लिखने का कोई फैसला मैंने नहीं लिया था। मेरे भीतर न जाने कैसे शब्दों की एक नदी बहने लगी थी, और मेरी मासूम उम्र उन शब्दों को चुन चुन झोली में भरती रही। कवि होने का यह निर्णय भी न था। पहली तुकबंदी होली के दिन हुई, जब हमारे मोहल्ले में लड़के ढोल पीटते होली का त्यौहार मानते गुज़र रहे थे। मैं तब छठी कक्षा में पढ़ती थी। उन दिनों हम फाजिल्का में रहते थे। पिता पुलिस विभाग में थे। सो, इधर, उधर तबादले के सिलसिले में यहाँ तहां घूम लेते थे। जहाँ मैं पढ़ती थी, वह सरकारी पाठशाला थी, वहां एक पुस्तकालय भी था। मैं अक्सर आधी छुट्टी को वहां जाकर किताबों के नाम देखा करती थी। उन्हें पढ़ नहीं पाती, किताबें बड़ी थी, मैं छोटी सी थी। हाँ, घर में माँ ने हमारे पढने के लिए चंदामामा और एक बाल पत्रिका लगवा रखी थी। खुद वे साहित्य की किताबें लाइब्ररी में पुस्तकें लेने और वापिस करने भी मैं ही जाती, माँ मेरे पुस्तक चयन करने के मामले को लेकर भी बहुत खुश होती थी। मैं अक्सर किताब के पन्ने उलटती-पलटती ही तय कर लेती थी की फलां किताब माँ को पसंद आएगी। मेरा भी मन होता था की मैं उन किताबों को पढूं। पर ऐसा संभव ही कहाँ था? हाँ, वह सारा माहौल मुझे कुछ न कुछ लिखने के लिए प्रेरित जरुर करता, तभी तो मैं छोटी छोटी कवितायेँ लिख पाई। लेकिन आज मुझे एक बात जरुर हैरान करती है की आठवीं तक मैं यही समझ न पाई थी की
जो मेरे कागजों पर अनायास ही उतर रहा है, वह मेरा अपना है, खुद का रचा साहित्य। यह एहसास तो बहुत बाद में मुझे हुआ। मैं सहेलियों के साथ कभी खेलने नहीं जाती थी। खेलकूद मुझे अच्छा न लगता था...मुझे किताबों से बहुत लगाव था या अकेलेपन से... माँ मेरी इस बात से कभी तो बहुत खुश हो जाती और कभी उदास भी। मेरी स्कूल के समय में एक ही सहेली थी। कुछ दिनों के बाद उसके पिता का तबादला हो गया और वह भी चली गई। मेरा स्कूल में मन नहीं लगता था। मैंने माँ से मिन्नत की और आठवीं तक पहुँचते स्कूल बदल लिया। मैं अब एस.डी. हाई स्कूल फाजिल्का में आ गई थी। इस स्कूल में आकर मुझे मेरी पसंद की सहेली मिल गई, उसका नाम उषा था। मैंने कहानियां बनानी शुरू कर डी। वे सारी कहानियां मैं उषा को जुबानी सुनाती। उषा बहुत हैरान होती की मैंने इन्हें कब कहाँ पढ़ा तो मैंने एक दिन उसे बताया कि ये सब कहानियां मेरे मन में न जाने कहाँ से उतर आती हैं। फिर उसी ने मुझे कहा कि मैं उन कहानियों और कवितायों को कागजों पर उतरा करूँ। बस, इसे ही मैंने पल्ले बाँध लिया। मुझे सचमुच विस्मय हुआ कि मैं भी दूसरों कि तरह खुद लिख सकती हूँ, पर मैं माँ से बहुत डरती थी, उनको बताने का सहस मैंने कभी नहीं किया था। उन्हें तो बहुत बाद जाकर पता चला कि मैं पढाई कि किताबों के बीच कोरे पन्ने रख कर कवितायें या कहानियां लिखती रही और आठवीं पास करने से पहले मैंने एक उपन्यास भी लिख दिया। जो भी लिखा, पर कविता लिखने से मुझे बहुत सुख मिला। मुझे हमेशा लगा कि जीवन में जो कुछ भी घटता है या आसपास जो मैं महसूस कर सकती हूँ, उसे सहेजने में कविता बहुत काम कि चीज़ है। कविता में रस है, कविता में जीवन है, कविता में विषाद और वेदना है। कविता में चाहें तो सारी सृष्टि समां सकती है। ....और जब आप अकेले छत पर बारिश कि बूंदों को भी भीतर तक समेटना चाहें तो भी कविता को पुकार सकते हैं। मेरी कविता ही मेरी दोस्त बन कर आज तक मेरी उंगली थामे साथ-साथ चल रही है। फिर अन्य किसी दोस्त कि जरुरत ही कहाँ रह जाती है? आप जिस रूप में चाहते हैं, कविता उसी लिबास में आपके समक्ष आ कड़ी होती है। आपके साथ रोटी भी है, खुश भी होती है। कविता सचमुच मेरे लिए प्राण है।

क्रमश....

Monday, July 12, 2010

मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!

मेरे जीने का महत्व लेखन से ही है। इसके बिना मैं खुद को अधूरा महसूस करती हूँ। बेशक मैं हर विधा में लिख सकती हूँ लेकिन कविता मेरे जीवन का मूल मंत्र है। कविता मुझे प्रकृति से जोडती है और उस परमात्मा ने इस प्रकृति में कितनी नेमते बख्शी है, वे सब मेरी कविता का हिस्सा बन जाती है। अगले पड़ाव तक, धुप उदास है और दहलीज़ मेरी काव्य पुस्तके हैं जो मैंने पाठकों को दी हैं। इसके अतिरिक्त मेरी अन्य नौ पुस्तके हैं जिनमें एक उपन्यास 'बंद दरवाज़े' और शेष अलग अलग विधा में हैं।

मैं चाहूंगी की मेरे पाठक और मेरे लेखक मित्र मेरे ब्लॉग पर आकर मुझसे बातचीत करें और अपने विचारों का आदान प्रदान करें। आपका स्वागत है!

गीता डोगरा