वह लड़की
सीख गई है
अपने ज़ख़्मों को छुपाना
उसने सीख लिया है
दर्द में भी
मुस्कुराना
शहर रोता है जब जब
वह भी कर लेती है
आँख नम....
फिर कुछ चेहरों के बीच
जा मुस्कुराना
उसने चन्द घंटों में ही
शहर के रीति रिवाज
औड़ने का ढंग
फिर शहर - दर शहर
भटकना
फिर वह देती है दस्तक
स्वपन गढ़ती है
पर कितना मुश्किल
होता होगा
सपनों का देहरी पर से
होकर लौट जाना
नहीं तो बस नही
सीख पाई
दरवाज़े पर से
उन सपनों को रोके रखना
इसलिए..
वह हर रोज़
ढूँढती है सबब
बेरोक टोक कहीं जाने के रास्ते
पर नहीं सीख पाई
अपना जीना अपना मरना
वह लड़की....
- गीता डोगरा
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