Saturday, December 25, 2010

रूह की बात

जिस्म जिस्म नहीं होता
जब तक हो न
उसमें रूह शामिल

इसीलिए करती रहती हूँ
बगावत
तुम्हारे साथ हर रात में

मैं नहीं दे पाती
तुम्हारा साथ
छू नहीं पाती तुम्हारा चेहरा

कैक्टस सी लगने लगती है
तुम्हारी छुअन
कभी हलकी, कभी तीखी

पहले
मैं तुमसे हिल मिल गई थी
तब...तुम रच बस न सके
तुम्हारी नींदों में भी
उसका नाम
तब बर्फ की तरह हो जाती थी
मैं अचानक....

फिर
मैं तुम्हारे अतीत को चाहने लगी
उसे लेकर
तुमसे बतियाने लगी

तुम मुस्कराते
मीलों मील चलते
मुझसे बौराते न थे
उसको याद करते
कभी
उस पर झल्लाते
गुस्साए से...मगर
निभाते रहे....उससे
बेनाम रिश्ता
और मैं अनचाहे तुमसे
पर
मैं तुमसे दूर
बहुत दूर निकल गई

अभी भी मेरे भीतर
पलता है वह अपमान
कि
मैं क्यों बनी रही
सालों साल
तुम्हारे ड्राइंग रूम का शो पीस
और क्यों?
बरसों बीत गए
इसी तरह एक छत के नीचे
नहीं छू पाए तुम मेरी रूह

बस...खेलते रहे जिस्मों से
हम
एक दूसरे की जरुरत हो गए
एक साथ रहने की
आदत हो गए!


पर ...
खेल तो खेल होता है
वक़्त आने पर खत्म हो जाता है
जिस तरह
धरती पर आ गिरती है
आकाश को छूने के प्रयास में
बिना छूए गेंद
और ढूँढ लेती है
कोई एक टुकड़ा ज़मीन

पर मैं
गेंद नहीं बनी
तुम्हारे जिस्म से मुक्त हो
मैंने ढूँढ लिया
अपने लिए एक अदद आसमान
छू लिया उसने भी
मुझे...अचानक
और मैंने उसकी नब्ज़ पर
लिख दिया
अपना नाम

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